"मैं एक अकेला और चार दीवार"

"मैं एक अकेला और चार दीवार"  
                                         _सुमन
मैं  एक अकेला और चार दीवार ,
     कुछ गहरी यादें , उन सपनों के पार ।
मै बैठा किसी कोने में ,
     तुम गुमशुदा सी उस सरहद पार ।
तुम चंचल कोमल उस न्यार की भांति ,
      मै डमरू भोलेबाबा की सिंगार ।
तुम निराश उस पथिक की तरह
      मैं शीतल छांव एक बरगद झाड़ ।
वो गांव की गलियां , खेत की हरियाली ,
    मुझे पुकारे मेरे ख्यालों में ।
सायद  ना देख पाउं मुन्ना मुन्नी को
    उन बगीचे और खेत खलिहानों में ।
मै फिर भी बड़ा जिद्दी हूं ,
    उन पलों से खुशियां पाने को ।
जो पल औझल हो चुके हैं ,
     उन्हें जेंहैैं से वापस लाने को ।
माता पिता के उन चरणों को ,
        कदाच स्पर्श ना कर सके यह हाथ ।
ए जन्म ही मेरा खोट था ,
      सायद अबकी जन्म हो मुलाकात ।
बिना दोष का यह उपहार मिला ,
        चार बेडी , और यह कारागार ।
ठहरे हुए ए वक़्त रहा और ,
       मै अकेला चार दीवार ।
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