"मैं एक अकेला और चार दीवार"
"मैं एक अकेला और चार दीवार" _सुमन मैं एक अकेला और चार दीवार , कुछ गहरी यादें , उन सपनों के पार । मै बैठा किसी कोने में , तुम गुमशुदा सी उस सरहद पार । तुम चंचल कोमल उस न्यार की भांति , मै डमरू भोलेबाबा की सिंगार । तुम निराश उस पथिक की तरह मैं शीतल छांव एक बरगद झाड़ । वो गांव की गलियां , खेत की हरियाली , मुझे पुकारे मेरे ख्यालों में । सायद ना देख पाउं मुन्ना मुन्नी को उन बगीचे और खेत खलिहानों में । मै फिर भी बड़ा जिद्दी हूं , उन पलों से खुशियां पाने को । जो पल औझल हो चुके हैं , उन्हें जेंहैैं से वापस लाने को । माता पिता के उन चरणों को , कदाच स्पर्श ना कर सके यह हाथ । ए जन्म ही मेरा खोट था , सायद अबकी जन्म हो मुलाकात । बिना दोष का यह उपहार मिला , चार बेडी , और यह कारागार । ठहरे हुए ए वक़्त रहा और , मै अकेला चार दीवार । --------------------------------------------